सोमवार, 26 दिसंबर 2011

फ़िज़ूलखर्ची का बीमा







अभी हाल ही में बीमा निवेश वाली दो प्रमुख कंपनियों आईसीआईसीआई लोम्बार्ड तथा बज़ाज़ एलाएन्ज़ ने एक नए तरह के बीमे की शुरूआत की है । इसके तहत शादी-विवाह के आयोजनों के बीमे का प्रावधान किया गया है , जिनमें किसी भी तरह का व्यवधान , किंतु कारण मानवीय न हो ,पडने से शादी हो नहीं पाती है । आज महानगरीय जीवन की आपाधापी में शादी विवाह के आयोजन जैसे समारोह अपना रसूख व शानो शौकत दिखाने का एक बहाना सा बन गए हैं ।

आज सामाजिक परिवेश में आ रहे परिवर्तन न सिर्फ़ रहन-सहन , आचार व्यवहार को बदल रहे हैं बल्कि नई प्रवृत्तियां और प्रचलन गढ रहे हैं । भारत में यूं भी काफ़ी प्राचीन समय से जीचन के प्रमुख पडावों , संस्कारों , रीति रिवाज़ों आदि अवसर्पर जी भरके फ़िज़ूलखर्ची के अवसरों की गुंजाईश रहती आई है । ये दूसरे देशों के लिए शायद विस्मय की बात हो सकती है ,कि आज भी देश के बहुत बडे हिस्से में किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत किए जाने वाले कर्मकांड उसके जीवन के किसी अवसर से भी ज्यादा महंगी होती है । ग्राम्य जीवन में तो मानव जीवन्के इस अंतिम संस्कार की परंपरा का निर्वाह उनके आर्थिक पिछडेपन और कर्ज़खोरी का एक अहम कारण था ।

शहरी समाज में बेशक वैवाहिक परंपराओं के साथ -साथ विवाह नामक संस्था के चिर मान्यताकरण में कमी आई हो किंतु इसके आयोजन की आडंबरता विशाल होकर इवेंट मैनेजमेंट सरीखे व्यवसाय का रूप ले चुकी है । भारतीय शहरों में शादी-विवाह के आयोजनों का खर्च अब हज़ारों लाखों से आगेबढकर करोडों अरबो में पहुंच गया है । आज ये तमाम परंपराएं फ़िज़ूलखर्ची और तडक भडक वाले आडंबरों का प्रदर्शन मात्र है । बैचलर पार्टी ,मेंहदी , सेहराबंदी , रिसेप्शन तहा विवाह से जुडी हर परंपरा अब एक इवेंट का रूप ले चुकी है । ज़ाहिर है कि इतने महंगे आयोजन को किसी आशंका से ध्वस्त होने के जोखिम से बचने के लिए ये बीमा सही साबित होगी ।

इस मुद्दे के साथ एक बार फ़िर से इस विषय पर ध्यान अटकता है कि क्या इस देश को फ़िज़ूलखर्च करने की छूट दी जानी चाहिए । जिस देश में दो वक्त का भोजन सुनिश्चित करने के लिए कानून लाने की बाध्यता हो क्या उस देश में वाकई एक रात में धूम धडाके , बेहिसाब भोज्य सामग्री , नाच गान ,मनोरंजन के लिए बहा देना कोई अनुचित प्रवृत्ति नहीं है । शहरों में पिछले एक दशक में फ़ार्म हाऊस संस्कृति ने जलसे दावत की एक ऐसी परंपरा शुरू की जो आज भी विकसित कहे जाने वाले समाज के लिए एक नियमित अपव्यय सा बन कर रह गई है ।

ऐसा नहीं है कि फ़िज़ूलखर्ची को समस्या के रूप में नहीं देखा जा रहा है । अभी कुछ माह पूर्व राजस्थान में मृत्यु भोज को अनावश्यक व अवैधानिक घोषित करके एक बडी शुरूआत की गई । यह दलील दी गई कि जिस देश में प्रतिदिन सैकडों लोग अब भी भूख से मर रहे हों वहां जबरन इतने अन्न का अपव्यय क्या उचित बात है । देश आज एक बहुत बडा वैश्विक बाज़ार बन कर उभरा है । किसी भी नई चीज़ के लिए तो ग्राहकों की एक बडी फ़ौज़ सतत प्रतीक्षारत रहती है । किंतु महानगरीय से नगरीय और कस्बाई परिवेश से होकर ग्राम्य समाज तक विकास और जीवन स्तर में एक अनिवार्य साधन के रूप में अपनाए जाने वाले टीवी मोबाइल , कार, कपडे अब धीरे धीरे अपव्यय का परिचायक बन चुके हैं ।

भारतीय समाज की फ़िज़ूलखर्ची प्रवृत्ति में उसका पूरा साथ निभाया है देश की उत्सवी संस्कृति ने । इस देश के सभी प्रांतों के पास अपने अपने उत्सवों के लिए ढेरों दिन व तौर तरीके उपलब्ध रहे हैं । हां यहां ये तत्य जरूर गौरतलब रहा है कि भारतीय ग्रामीण समाज के उत्सव व परंपराएं त्यौहार आदि न सिर्फ़ कृषि अर्थव्यवस्था के अनुरूप थीं बल्कि उनका मानव जीवन के सदविकास में भी खासा महत्व था ।

भारत में वैश्विक उदारीकरण के दौर के शुरू होते ही पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने यहां की संस्कृति के अनुरूप और अतंत: उनके बाज़ारों के लिए एक नए विकल्प के रूप में मदर्स डे , फ़ादर्स डे , वेलेंटाईन डे आदि नए उत्सवों को आधुनिक नगरों में प्रवेश कराया । आज मकर संक्रांति व वसंत पंचमी के स्थान पर वेलेन्टाईन डे की प्रमुखता हावी हो गई है जिसने भारतीय बाज़ारों पर विदेश प्रभावों को चिन्हित सा कर दिया है ।


आज विश्व अर्थव्यवस्था उस दौर में प्रवेश कर चुकी है जब सभी देश व क्षेत्र अपने आर्थिक सामाजिक हितों को सर्वोपरि वरीयता दे रहे हैं । भारत अब तक अपनी बहुत सी विशिष्टताओं के कारण अब तक न सिर्फ़ खुद को मंदी की चपेट को बचाए रख सका है बल्कि विकास की संभावनाओं को भी बरकरार रखा है । इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि समाज अपनी इस ताकत को समझे और फ़िज़ूलखर्ची को हतोत्साहित करके देश की आर्थिक संबलता में सहयोग दे । फ़िज़ूलखर्ची के बीमे से अच्छा है बचत से विकास का रास्ता ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. झे तो यहाँ भी गड़बड़ लग रही है ! मान लो बाई दी वे , मंडप में ही दुल्हा-दुल्हन का झगडा हो जाए ( अमूमन दहेज़ के चक्कर में ) और पता चला की ये बीमा वाले दोनों को उठाकर अपने स्क्रेप गोदाम में ले गए जैसे टकराने वाली गाडिया उठा कर ले जाते है :) :)

    जवाब देंहटाएं

मुद्दों पर मैंने अपनी सोच तो सामने रख दी आपने पढ भी ली ....मगर आप जब तक बतायेंगे नहीं ..मैं जानूंगा कैसे कि ...आप क्या सोचते हैं उस बारे में..

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...