मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

खिलाडियों की उपेक्षा/अपमान ...देश का खेल चरित्र




यूं तो इस देश में खिलाडियों की उपेक्षा का अपना एक अलग ही खेल के समानांतर ही एक इतिहास है , मगर जब देश के खिलाडी सबको चौंकाते हुए राष्ट्रमंडल खेलों में या किसी बडे अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता में पदकों से देश की शान बढाते हैं तो लगता है कि शायद इस बार के बाद से इस देश को , सरकार को और प्रशासन को इतनी तमीज आ जाए कि , संघर्षशील का न सही विजेताओं का ही और सम्मान न कर पाए तो न सही मगर इतना तो तय कर ही सके कि उनका अपमान न हो । ये अपमान हर बार पिछली बार से अधिक ज्यादा असहनीय सा लगता है न सिर्फ़ उन खिलाडियों को बल्कि आम जनता को भी ।

यदि ये कहा जाए कि पूरी दुनिया में हॉकी के जादूगर के नाम से विख्यात भारतीय खिलादी मेजर ध्यानचंद को भी सिर्फ़ खेल दिवस के बहाने घडी दो घडी याद करके बस औपचारिकता निभा ली जाती है तो कोई गलत नहीं होगा । जिस हॉकी टीम को ध्यानचंद और उनके समकालीनों ने अपनी मेहनत और श्रम से सींच कर बुलंदियों पर पहुंचाया था आज वो न सिर्फ़ अंदरुनी बल्कि बाहरी सियासी कूटनितिक लडाई का मैदान बना हुआ है । और अब फ़िर कभी उस समय को भारतीय हॉकी खिलाडी पा सकेंगे ये एक दिवास्वप्न ही लगता है । न सिर्फ़ ध्यान चंद बल्कि अपमानित होने वाली खिलाडियों की सूची में उडन परी पीटी उषा , ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील , और अब हाल ही में एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक विजेता धावक सुधा सिंह का नाम भी शामिल हो गया है । इस खिलाडी के साथ तो ये हुआ कि प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जिसमें खुद सुधा सिंह को ही मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था , उस प्रदेश के खेल मंत्री अयोध्या प्रसास पाल ने ही नहीं पहचाना .बल्कि प्रदेश स्तर के खेल उच्चाधिकारियों तक ने उनकी उपेक्षा की । इस घटना से वे इतनी व्यथित हुई कि उन्होंने फ़ैसला किया कि अब वे कभी उस प्रदेश से नहीं खेलेंगी , किंतु मंत्री और अधिकारी द्वारा खेद जताने पर वे मान गई हैं ॥इससे भी हालिया मामला ये हुआ है कि सानिया नेहवाल जो अभी विश्व की दो नंबर की बैडमिंटन खिलाडी हैं, आधिकारिक साईट पर उनके विषय में कोई सूचना ही नहीं अद्यतित की गई है । ये भी नहीं कि उन्हें हाल ही में खेल रत्न से नवाज गया है । ये सिलसिला अभी आगे भी बदस्तूर चलने की संभावना है ।

इन खबरों के अलावा खिलाडियों की दुर्दशा की और भी बहुत सारी खबरों में जो अक्सर सुनने को मिलती है वो ये कि खेलों में सक्रियता की कमी होते ही या फ़िर खेल के मैदान से हटते ही उन खिलाडियों और उनके परिवार की हालत भुखमरी से जूझने जैसी हो जाती है । यदि इन खबरों और खिलाडियों की ऐसी हालत के बाद भी देश के किसी कोने में कोई सायना , कोई सुधा , कोई उषा यदि अब भी जाने कितनी ही विपरीत परिस्थितियों में खेल के नाम पर अपना सर्वस्व झोंक रही है तो ये इस देश की खुशकिस्मती है और खिलाडियों की शायद बदकिस्मती ही बन जाएगी कभी न कभी ।

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