शनिवार, 26 जून 2010

औनर किलिंग : एक विश्लेषण





इन दिनों देश के विभिन्न भागों लगातार घटती घटनाओं/हत्यायों के दौर ने एक बार फ़िर से औनर किलिंग को एक मुद्दे के रूप में सामने रख दिया है । इस बार ये घटनाएं इतनी तेजी से एक साथ घटी हैं कि इस बार ये किसी राज्य , क्षेत्र , और जाति के दायरे से बाहर निकल राष्ट्रीय स्तर पर बहस और समस्या के रूप में चिन्हित की जा रही हैं । न्यायपालिका ने भी इन घटनाओं पर स्वत: संज्ञान ले कर कई राज्य सरकारों से इस बाबत रिपोर्ट तलब की है । भारत में अब तक जितने भी मामले औनर किलिंग के नाम पर चर्चित और विवादित हुए हैं , उनमें से अधिकांश प्रेम और वो भी अंतर्जातीय प्रेम विवाह आदि के इर्द गिर्द ही घूमते से हैं । जबकि वैश्विक परिदृश्य में ऐसा नहीं है ।

औनर किलिंग का मतलब सीधे सीधे अर्थों मे ये है कि , वैसे अपराध और विशेषकर हत्या , जो परिवार की इज्जत प्रतिष्ठा को बचाए रखने के नाम पर की जाती है ।किंतु भारत में ये घटनाएं ज्यादातर प्रेम विवाह और वो भी किसी गैर धर्म मजहब में या किसी अन्य जाति में किए जाने के फ़ैसले के विरोध में ही दिखती हैं । विश्व में जहां कहीं भी औनर किलिंग के नाम पर ऐसी घटनाएं देखी जा रही हैं उनमें कहीं भी ये कारण तो कतई नहीं दिखता है । वैश्विक परिदृश्य में औनर किलिंग के सबसे ज्यादा मामले , अवैध यौन संबंधों को छिपाने के लिए , नाज़ायज़ रिश्तों को छुपाने के लिए , समलैंगिक रिश्तों के सच को छुपाने के लिए , और कट्टर मुस्लिम देशों में धार्मिक प्रतिबंधों को न मानने के विरूद्ध देखने सुनने में आते हैं । और पश्चिमी देशों में जहां से ये औनर किलिंग की प्रथा का चलन शुरू हुआ है वहां भी सबसे ज्यादा मामले इन नाज़ायज़ या विवाहेत्तर संबंधों के कारण ही हुए और हो रहे हैं । जबकि भारत में सबसे अधिक मामले प्रेम विवाह के से ही जुडे हुए हैं ।

भारत में औनर किलिंग सबसे ज्यादा चर्चित हुआ आरूषि मर्डर केस में , जिसमें आरूषि नाम की बालिका की हत्या रात के ढाई तीन बजे के बीच हुई और कहा, बताया गया कि बच्ची की हत्या उसके माता पिता ने की है जो अपने किसी ऐसे ही अवैध रिश्ते के राज खुलने के डर से किया गया है । मगर बाद में जाकर इस पूरे मामले में कुछ भी साबित नहीं हुआ ,और देश की सबसे बडी जांच एजेंसी सीबीआई के हाथों में मामला सौंपने के बावजूद आजतक कुछ भी हासिल नहीं हुआ किसी को । किंतु इसके बाद तो जैसे ये मामले बढते ही चले और दिनोंदिन इनकी रफ़्तार बढती ही जा रही है ।खाप पंचायतों द्वारा सुनाए जाने वाले फ़ैसलों में प्रेमी युगलों को मार दिए जाने की घटना , झारखंड का पत्रकार निरूपमा कांड ,और अब सामने आए ये नए मामले । हालांकि ऐसा नहीं है कि इन मामलों में अचानक ही वृद्धि हो गई है , असल में तो भारत की सामाजिक सरंचना में जाति ,धर्म, भाषा आदि जैसे तत्व जबसे हैं तभी से उनके नाम पर सम्मान, प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए जान लेने देने की परंपरा भी रही है । इतिहास भी इस बात का गवाह रहा है ।

अब तो ऐसा लगता है कि जितना ज्यादा इन घटनाओं की चर्चा हो रही है उससे दोगुनी रफ़्तार से ये घटनाएं बढती जा रही हैं । यही कारण है कि इस बार इन घटनाओं ने सरकार और संबंधित संस्थाओं का ध्यान भी अपनी ओर खींचा है । अब बात की जा रही है कि औनर किलिंग की बढती घटनाओं को रोकने के लिए कठोर कानून बनाए जाएंगे । लेकिन समाजविज्ञानी इसे नाकाफ़ी और सही नहीं मानते । उनका मानना है कि कत्ल जैसे अपराध के लिए तो पहले से ही कठोरतम सजाओं का प्रावधान है । इसलिए आज जरूरत है कि समाज को इसके लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाए । हालांकि इसके लिए समाज विज्ञानी भारतीय समाज के विरोधाभासी चरित्र और स्वरूप को बहुत जिम्मेदार मानते हैं । एक तरफ़ तो सरकार जातियों का स्पष्ट विभाजन तय करती है , उन्हें आरक्षण आदि के नाम पर एक दूसरे से काफ़ी दूर करती है , दूसरी तरफ़, प्रेम से आदि से आगे जाकर , लिव इन रिलेशनशिप, और समलैंगिकता तक को मान्यता देने की कोशिश की जा रही है । ऐसे में तो इस तरह के परिणाम आना अपेक्षित ही हैं । समाज में अशिक्षा का प्रतिशत , और कानून का खत्म होता डर भी इन सबको बढाने के लिए जिम्मेदार है । अब देखना तो ये है कि आखिर ये औनर किलिंग की वेदी पर अभी और कितनी बलियां और दी जाएंगी ॥

सोमवार, 21 जून 2010

आम आदमी के पहुंच से दूर होती उच्च शिक्षा


आजकल कालेजों में दाखिले की मारामारी है । शहरों में विशेषकर मेट्रो और राजधानी में तो ये मारामारी अपने चरम पर होती है । कहने को तो परीक्षाओं से पहले बहुत से सलाह केंद्र और सहायता केंद्र पर सलाह देते और ढांढस बंधाते काऊंसलर न सिर्फ़ विद्यार्थियों बल्कि उनके अभिभावकों को भी कम नंबर आने या फ़िर कि शीर्ष वरीयता सूची में नाम न आने आदि को लेकर किसी भी तरह से परेशान न होने की हिदायत देते रहते हैं । किंतु हकीकतन जब परीक्षा परिणामों के बाद दाखिले की दौड शुरू होती है तब एक बार फ़िर से उन्हीं नंबरों की अहमियत , वही कट लिस्ट आदि का झंझट आदि से विधार्थी का सामना होता है । और विभिन्न कालेजों , संस्थानों में दाखिला मिलने /न मिल पाने की ऊहापोह में एक बार फ़िर से अभिभावकों की नाराजगी , उनकी मजबूरी का ताना सुनना पडता है ।

यहां कुछ तथ्य ऐसे हैं जो न सिर्फ़ हैरान कर देते हैं बल्कि अफ़सोस करने लायक लगते हैं । पिछले सिर्फ़ दो दशकों में व्यावसायिक परिसरों , मल्टीप्लेक्सों , शौपिंग मौलों , म्युजिक प्लैनेट , बडे पब तथा रेस्त्रां आदि की संख्या में तकरीबन ७८ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । जबकि इसके विपरीत शिक्षण संस्थानों , विशेषकर सरकारी कालेजों की संख्या में सिर्फ़ १९ प्रतिशत की । इसी बात से पता चल जाता है कि सरकार शिक्षा के प्रति कितनी गंभीर है । ऐसी हालत में जहां इन कालेज प्रशासनों द्वारा दाखिले के नाम पर , विभिन्न कोटे की सीटों का आरक्षण , तो और भी कई तरीकों से जम कर भ्रष्टाचार और उगाही की जाती है । वहीं बहुत से इच्छुक विद्यार्थी कालेजों में दाखिला न ले पाने के कारण टूटे हुए मन से कोई और दिशा पकड लेते हैं या बेमन से अन्य कोर्सों में दाखिला लेते हैं ।

इससे जुडी और शायद उससे भी ज्यादा गंभीर समस्या है इस शिक्षा का दिनानुदिन बहुत अधिक मंहगा होते जाना । मोटे तौर पर यदि सिर्फ़ ये कहा जाए कि उच्च शिक्षा में आज कोई भी कोर्स ऐसा नहीं है जहां पर किफ़ायती दरों पर भी अभिभावक अपने बच्चों को पांच दस लाख से कम शिक्षण शुल्क दे कर पढा सकें । अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि इस वास्तविकता को सभी मन ही मन स्वीकार भी चुके हैं , इसलिए बच्चों के हायर सेकेंड्री में पहुंचते ही वे अपनी बचत राशि और जमा पूंजी टटोलने लगते हैं , बैकों के चक्कर काटने लगते हैं जहां से उन्हें शिक्षा लोन मिलने की गुंजाईश हो । सरकार यदि कभी इन सब पर अपना पक्ष रखती है तो स्पष्ट कह देती है कि शुल्क में वृद्धि तो स्वाभाविक है और सरकार यदि संस्थानों की संख्या बढ भी दे तो भी शुल्क में बहुत अधिक अंतर नहीं पडने वाला है ।

अब इसका एक प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष परिणाम ये होता है कि इन सभी बडे बडे संस्थानों में सिर्फ़ आर्थिक रूप से सक्षम माता पिता के बच्चे ही पढ पाते हैं और फ़िर जब ऐसे बच्चे डिग्रियां लेकर उन संस्थानों से बाहर निकलते हैं तो उनका पहला और आखिरी ध्येय सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसा, रुतबा , शोहरत बनाना ही होता है । उन्हें क्या मतलब देश से समाज से उसके विकास से । यही वो कारण हैं जो बच्चों को देश से बाहर जाने को प्रेरित करता है ,यही वो कारण है जो बच्चों को रोकता है कि वे अपने देश में रह कर शोध और अविष्कारों में अपना समय बर्बाद करें । ये सब एक ऐसी समस्या बन चुकी है जिसे जानबूझ कर बने रहने दिया जा रहा है , क्योंकि ये उनके लिए एक सुविधा की तरह है जो देश का चमचमाता वर्ग है । लेकिन आने वाले समय में ये वर्ग द्वेष आगे बढ कर यदि गृह युद्ध का रूप ले ले और देश का एक बडा युवा वर्ग सही शिक्षा के अभाव में हतोत्साहित होकर दिशाहीन हो जाए तो इसके लिए समाज और देश को तैयार ही रखना चाहिए खुद को ।

रविवार, 6 जून 2010

मानव व्यवहार में हो रहा परिवर्तन : एक विश्लेषण



अमेरिका के स्कूल में एक विद्यार्थी ने अपने सहपाठियों और शिक्षकों पर गोलिया बरसाईं । दिल्ली में सडक पर एक कारों के आपस में बस छू भर जाने से क्रोधित दो युवकों ने आपसी मारपीट की , और एक ने दूसरे को गंभीर रूप से घायल कर दिया । फ़्रांस में वीडियो गेम्स देखने से मना करने पर बेटे ने मां को ही मार डाला । गाजियाबाद में केले के पैसे मांगने पर झगडा , एक की मौत । अब पूरी दुनिया भर में इस तरह की घटनाएं और खबरें आम सुनने पढने और देखने को मिल रही हैं । समाज विज्ञानियों ने पहले तो इन्हें गंभीरतापूर्वक नहीं लिया किंतु अब जबकि इन घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हो रही है तो इंसान के इस बदलते व्यवहार पर अध्य्यन करने के बाद इसके कारण और परिणामों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की । इस रिपोर्ट में तफ़सील से बताया गया कि किन वजहों से आज आदमी इस तरह तनाव , व्यग्रता, कम सहनशील ,उग्र होता जा रहा है ।

वर्तमान में जीवनशैली में एक नियमित भागदौड , एक मशीनीपन , प्रतिस्पर्धी वातावरण सा बन चुका है । शहरों में तो ये बात इतनी ज्यादा हो चुकी है कि दिन और रात का फ़र्क ही नहीं पता चलता है अब । ग्रामीण क्षेत्रों में बेशक अभी भी उतनी गलाकाट नहीं मची हुई है , और सारा जीवन एक नियमित सी दिनचर्या पर चल रहा है इसीलिए वहां अब भी रोड रेज , बात बेबात मारपीट , आदि की घटनाएं आम तौर पर होती नहीं दिखती हैं । जहां तक शहरो की बात है तो , यहां तो यदि बचपन से ही आकलन किया जाए तो आज के पांच वर्ष का बच्चा जो मानसिक शारीरिक दबाव तथा आई क्यूं यानि बोध परिपक्वता को महसूस करता है वो दो तीन दशक पहले तक बालिगपन में पहुंचने वाला युवा भी नहीं कर पाता था । घर से भारी बस्तों का बोझ उठाए बालक कब माता पिता की अति महात्वाकांक्षा के दबाव तले आ जाता है उसे पता ही नहीं चलता । अब मां पिता दोनों ही कामकाजी होते जाने के चलन ने जहां उनसे घर में मिलने वाला अभिभावकीय स्नेह , उनका वक्त .छीन लिया वहीं सब कुछ पैकेट बंद खाने पीने पर ही निर्भरता तक सीमित हो कर रह गया है ।

मानव के बदलते हुए व्यवहार पर शोधरत समाज विज्ञानियों और मनोविज्ञानियों ने इसके कुछ विशेष कारणों की पहचान की । इनमें से पहला है बदलता खानपान । रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में लोगों की खान पान की प्रवृत्ति में बहुत भारी बदलाव आया है । पूरे विश्व में जिस तेज़ी से फ़ास्ट फ़ूड या जंक फ़ूड भोज्य पदार्थों के सेवन का चलन बढा है उसने पारंपरिक भोजन को पीछे धकेल दिया है । विकसित देशों में तो ये खैर बहुत पहले से ही चला आ रहा है । मोटापे , रक्तचाप तथा पेट जनित कई बीमारियों के लिए जिम्मेदार ये भोज्य पदार्थ अब पश्चिमी समाज को भी खटकने लगे हैं । इसलिए वहां भी अब इन पदार्थों को स्कूल कालेज परिसरों में प्रतिबंधित करने पर विचार किया जा रहा है । ऐसे भोजन न सिर्फ़ पाचन तंत्र को प्रभावित करते हैं बल्कि शरीर में उच्च रक्तचाप और उत्तेजना के लिए भी जिम्मेदार हैं । इसलिए इनके लगातार सेवन से चिडचिडापन , तनाव का होना स्वाभाविक ही है । आज भारतीय शहरों में भी इनके प्रति बढता रुझान और उसके प्रभाव के परिणाम भी दिखने लगे हैं ।

इसके अलावा दूसरा कारक बताया गया है मनोरंजन , समाचार , सूचना के नाम पर लोगों के बीच फ़ैल रही हिंसात्मक सामग्री का प्रचार और प्रसार । रिपोर्ट बताती है कि बच्चों के खेल हों या बडों की फ़िल्में , समाचार हों या सूचना संसार हर ओर हिंसा , और उत्तेजना को ही आधार बना कर लोगों के सामने परोसा जा रहा है । तो ऐसे में जो भी एक आम व्यक्ति देख समझ रहा है धीरे धीरे उसका प्रभाव न सिर्फ़ उसके मस्तिष्क पर पडता है बल्कि उसका व्यवहार भी इसी तरह परिवर्तित होता जाता है । पश्चिमी देशों में तो इस कई ऐसी घटनाएं और अपराध तक इन्हीं कार्यक्रमो , सिनेमा , धारावाहिकों आदि से प्रेरित होते हैं । मनोविज्ञानी बताते हैं कि जितना प्रभाव सकारात्मक और सीधी साधी प्रस्तुतियां नहीं डालती हैं , उससे कहीं अधिक तीव्रता से मारधाड, हिंसा , अश्लीलता, उत्तेजना आदि की सामग्रियां मस्तिष्क ग्रंथियों को प्रभावित करती हैं ।

आज इंसान के व्यवहार में बढती उग्रता और हिंसा का एक बडा कारण नशे के सेवन को भी माना गया है । समाज विज्ञानी कहते हैं कि समाज में जिस गति से विभिन्न तरह के नशीले पदार्थों का , शराब , आद कि सेवन बढा है वो भी इन सबके लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है । इस बात को साबित करते हुए मनोविज्ञानी कहते हैं कि पुरूषों की तुलना में महिलाएं अब भी नशे के सेवन में बहुत पीछे हैं और यही कारण है कि क्रोध ,द्वेष, हिंसा , आदि में अधिकांश और जल्दी , पुरूष वर्ग ही पाया जाता है । आजकल युवा सबसे अधिक नशे की गिरफ़्त में हैं इसलिए उनके व्यवहार में भी इसका प्रभाव देखने को मिल रहा है ।

समाज विज्ञानियों ने इस तरह के बदलवा और मानव व्यवहार में निरंतर हो रहे परिवर्तनों को बहुत ही गंभीर चिंता का विषय माना है । उनका मानना है कि ये न सिर्फ़ समाज के लिए , लोगों के लिए , बल्कि खुद इंसानियत के लिए भी बहुत ही नुकसानदायक होने वाला है । सबसे दुखद बात तो ये है कि अभी तक इन बातों को गंभीरतापूर्वक लिया ही नहीं गया है ।

शनिवार, 5 जून 2010

काश कि इस तरह मनाया जा सके पर्यावरण दिवस




हर साल पांच जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जा रहा है । और पिछले एक दशक से जब से इस दिवस को सिर्फ़ मनाया और उससे ज्यादा मनाए जाने को जताया जा रहा है तभी से लगातार पर्यावरण की खुद की सेहत बिगडती जा रही है । इससे बडी विडंबना और क्या हो सकती है कि आज जब ये विश्व पर्यावरण दिवस को मनाए जाने की खानापूर्ति की जा रही है तो प्रकृति भी पिछले कुछ दिनों से धरती के अलग अलग भूभाग पर , कहीं ज्वालामुखी प्रस्फ़ुटन के रूप में , तो कहीं लैला , कहीं सुनामी , कहीं कैटरीना और कहीं ऐसे ही किसी प्रलय के रूप में इस बात का ईशारा भी कर रही है कि अब विश्व समाज को इन पर्यावरण दिवस को मनाए जाने जैसे दिखावों से आगे बढ कर कुछ सार्थक करना होगा । बडे बडे देश और उनका विकसित समाज जहां प्रकृति के हर संताप से दूर इसके प्रति घोर संवेदनहीन होकर मानव जनित वो तमाम सुविधाएं उठाते हुए स्वार्थी और उपभोगी होकर जीवन बिता रहा है जो पर्यावरण के लिए घातक साबित हो रहे हैं । वहीं विकासशील देश भी विकसित बनने की होड में कुछ कुछ उसी रास्ते पर चलते हुए दिख रहे हैं ।

जब भी प्रकृति के नाम पर चिंतित होने की बारी आती है तो कभी पृथ्वी सम्मेलन तो कभी टोक्यो समझौते जैसा कुछ करके उसे भुला दिया जाता है ।
आज यदि धरती के स्वरूप को गौर से देखा जाए तो साफ़ पता चल जाता है कि आज नदियां , पर्वत ,समुद्र , पेड , और भूमि तक लगातार क्षरण की अवस्था में हैं । और ये भी अब सबको स्पष्ट दिख रहा है कि आज कोई भी देश , कोई भी सरकार , कोई भी समाज इनके लिए उतना गंभीर नहीं है जितने की जरूरत है । बेशक लंदन की टेम्स नदी को साफ़ करके उसे पुनर्जीवन प्रदान करने जैसे प्रशंसनीय और अनुकरणीय प्रयास भी हो रहे हैं मगर ये ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान हैं । आज समय आ गया है कि धरती को बचाने की मुहिम को इंसान को बचाने के मिशन के रूप में बदलना होगा ।

बेशक
इंसान बडे बडे पर्वत नहीं खडे कर सकता , बेशक चाह कर भी नए साफ़ समुद्र नहीं बनाए जा सकते और , किंतु ये प्रयास तो किया ही जा सकता है कि इन्हें दोबारा से जीवन प्रदान करने के लिए संजीदगी से प्रयास किया जाए ।
भारत में तो हाल और भी बुरा है । जिस देश को प्रकृति ने अपने हर अनमोल रत्न , पेड, जंगल, धूप , बारिश , नदी , पहाड , उर्वर मिट्टी से नवाज़ा हो , यदि वो भी इसका महत्व न समझते हुए इसके नाश में लीन हो जाए तो इससे अधिक अफ़सोस की बात और क्या हो सकती है ।

इसके लिए सबसे सरल उपाय है कि पूरी धरती को हरा भरा कर दिया जाए । इतनी अधिक मात्रा में धरती पर पेडों को लगाया जाए कि , धरती पर इंसान द्वारा किया जा रहा सारा विष वमन वे वृक्ष अपने भीतर सोख सकें और पर्यावरण को भी सबल बनने के उर्जा प्रदान कर सकें । क्या अच्छा हो यदि कुछ छोटे छोटे कदम उठा कर लोगों को धरती के प्रति , पेड पौधे लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाए । बडे बडे सम्मेलनों , आशावादी समझौतों आदि से अच्छा तो ये होगा कि इन उपायों पर काम किया जाए । लोगों को बताया समझाया और महसूस कराया जाए कि पेड बचेंगे ,तो धरती बचेगी ,धरती बचेगी ,तो इंसान बचेगा । सरकार यदि ऐसे कुछ उपाय अपनाए तो परिणाम सुखद आएंगे

१)जन्मदिन , विवाह, और अन्य ऐसे समारोहों पर उपहार स्वरूप पौधों को देने की परंपरा शुरू की जाए । फ़िर चाहे वो पौधा ,तुलसी का हो या गुलाब का , गुलाब का हो या गेंदे का । इससे कम से कम लोगों में पेड पौधों के प्रति एक लगाव की शुरूआत तो होगी ।

) विभिन्न सरकारी समारोहों , सम्मेलनों और पुरस्कार वितरण कार्यक्रमों में शाल, स्मृति चिन्ह के साथ साथ पौधे देने की प्रथा भी शुरू की जाए ।


) सभी विशेष दिवसों , जयंतियों, आदि पर सरकार और गैर सरकारी संगठनों द्वारा वृक्षारोपण अभियान शुरू किया जाए वो भी पूरे वेग से और पूरी गंभीरता से।


४)सभी शिक्षण संस्थानों , स्कूल कालेज आदि में विद्यार्थियों को , उनके प्रोजेक्ट के रूप में विद्यालय प्रांगण में , घर के आसपास , और अन्य परिसरों में पेड पौधों को लगाने का कार्य दिया जाए । यदि इन छोटे छोटे उपायों पर ही संजीदगी से काम किया जाए तो ये कम से कम उन बडे बडे टोक्यो सम्मेलन से ज्यादा ही परिणामदायक होगा नि:संदेह ।

इंसान को अपने जीवन में पेड लगाने का सुख अवश्य ही प्राप्त करना चाहिए । मैं अपने हाथों के कम से कम पांच सौ पेड और पौधे लगा चुका हूं । पिछले ग्राम प्रवास के दौरान जब अपने लगाए आम के इन पेडों को देखा तो ऐसा लगा कि संतान बडी होकर गले से लग रही है और मेरे दिल को बडी ही ठंडक पहुंची । देखिए ये हैं वो आम के , शीशम के और जाने किस किस के पेड .........


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